‘ यह सिर्फ अफवाह ही हो सकती है कि सुबह नहीं होगी । ‘ इस सुस्पष्ट हकीकत को बयान करने की जरूरत क्यों पड़ी थी । अफवाह और अफवाह फैलाने वालों की विशिष्टता को समझाने के लिए कवि-मित्र राजेन्द्र राजन द्वारा २४ साल पहले हमारे चुनावी परचे में लिखा गया यह वाक्य कितना प्रभावी था ! एक निश्चित अवधि के बाद हर अफवाह अपने आप गलत साबित हो जाती है । परन्तु उस छोटी अवधि में टिके रहने के लिए भी हर अफवाह को किसी अर्धसत्य अथवा सत्यांश की आवश्यकता होती है । अर्धसत्य अफवाहों को भरोसेमन्द बनाते हैं ।
हमारे देश में फैल जाने वाली कुछ प्रसिद्ध अफवाहों और उन से जुड़े अर्धसत्य पर गौर करें । आपातकाल की गिरफ्तारी के दौरान लोकनायक जयप्रकाश के गुर्दे खराब हो गये थे इसलिए उन्हें डाइलिसिस पर रहना पड़ता था । उनकी मृत्यु की अफवाह ऐसी फैली कि तत्कालीन प्रधान मन्त्री मोरारजी देसाई ने लोकसभा में इसकी घोषणा भी कर दी थी ।
संजय गांधी की मौत हवाई जहाज उड़ाते वक्त दुर्घटना में हुई थी । तब टेलिविजन और एस.टी.डी की सुविधा आज जितनी व्यापक नहीं थी । अफवाह यह उड़ी कि दुर्घटना स्थल पर श्रीमती इन्दिरा गांधी पहुंची और उन्होंने संजय की जेब से एक चाभी निकाल ली । कांग्रेस पारटी में एक खानदान के प्रभुत्व की बात हकीकत है । इसलिए खानदान के एक सदस्य की मौत पर दूसरी सदस्य द्वारा चाभी हासिल करने की अफवाह चल पाई ।
कश्मीर घाटी में थोक में मन्दिरों को तोड़े जाने की अफवाह याद कीजिए । काश्मीरियत का सवाल ‘हिन्दू बनाम मुस्लिम का सवाल’ बने इसके लिए अलगाववादी आतंकी और शेष भारत में फैले फिरकापरस्त संगठन दोनों ही उन दिनों तत्पर थे । वरिष्ट पत्रकार बी.जी. वर्गीज को एक जाँच कर ठोस खण्डन वाली रपट जारी करनी पड़ी थी ।
गणेशजी की प्रतिमाओं के दूध पीने की घटना याद कीजिए । व्यापक अंधविश्वास और भौतिकीय तथ्य के आधार पर यह अफवाह फैलने में कितनी सफल हुई थी ।
गद्दारों के इतिहास और राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवाद की विचारधारा वाले समूह का प्रमुख औजार झू्ठ और अफवाहें फैलाना है । तानाशाही , संकीर्ण राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता की उनकी मुहिम के साथ – साथ उनके संकीर्ण ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा में वर्णाधारित – पुरुषसत्तात्मक समाज का अक्स दिखाई देता है । इस विचारधारा के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता , जातिविहीन समाज और स्त्री-पुरुष समता के मूल्य सबसे बड़ा खतरा होते हैं । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में न सिर्फ भाग न लेने अपितु उसका विरोध करने और अंग्रेजों का साथ देने के धब्बे से त्रस्त हो कर राष्ट्र की मुख्यधारा के आन्दोलन पर कीचड़ उछालने के प्रयास के सिवा उनके पास दंगे कराना रह जाता है ।
अनूप शुक्ल , तरुण ,विष्णु बैरागी , विवेक सिंह , रौशन जैसे कुछ प्रिय चिट्ठेकारों को एक पोस्ट पर उद्वेलित होता देख कर इतिहास को तोड़ने – मरोड़ने अथवा ‘लुंज-पुंज सोच की वजह से अन्तिम मन बिना बने ही’ प्रकाशित की गयी घटनाओं पर कुछ कहने जा रहा हूँ ।
घटनाओं पर आने के पहले कुछ सामान्य बातों पर गौर करें । जब हम पिछली शताब्दी की घटनाओं का हवाला देते हैं तब हमें तिथि , स्थान , समाचारपत्र अथवा राष्ट्रीय अभिलेखागार जैसे स्रोतों तथा तथ्यों का उल्लेख जरूर करना चाहिए । १९९२ में एक सज्जन ने दावा किया कि गांधी बाबरी मस्जिद के स्थान पर रामजनमभूमि के हक में थे । गांधी के कॉपीराइट के अधिकारी नवजीवन प्रकाशन ,अहमदाबाद के अधिकारियों ने प्रेस को बुला कर उस झूठे दावे का खण्डन कर दिया । तब मैंने हिन्दू धर्म की इन दो धाराओं के उस संघर्ष की कुछ घटनाओं का हवाला देते हुए एक लेख लिखा । ‘धर्मयुग’ के तत्कालीन सम्पादक ने लेख प्रकाशित करने की स्वीकृति वाले पत्र में लिखा कि गांधीजी के उद्धरणों से सन्दर्भों की अच्छी तरह पुष्टि कर ली जाए । मैंने सन्दर्भ ढंग से दिए थे लेकिन सम्पादक के कहने की वजह से इसका महत्व समझ में आया ।
यह उल्लेखनीय है कि यह समूह अपने पूज्य ‘गुरुजी’ गोलवलकर की लिखी पुस्तक को भी किसी अन्य पुस्तक का अनुवाद होने तथा मौलिक न होने की बात कहने लगे हैं ।
अब आइए उक्त पोस्ट तथा उस पर आई एक टिप्पणी पर
राष्ट्रीय नारे
खिलाफत ( यह नाम ‘मुखालफ़त शब्द से नही खलीफ़ा से आया है ) और असहयोग आन्दोलन के दौरान प्रयुक्त नारों की बाबत अपने अखबार यंग इण्डिया के ८ सितम्बर , १९२० , पृष्ट ६ पर गांधी ने एक लेख लिखा । उन्होंने उस लेख में सुझाव दिया कि नारे आदर्शों पर केन्द्रित हों व्यक्तियों पर नहीं । उन्होंने श्रोताओं से कहा कि , ‘महात्मा गांधी की जय’ तथा ‘ मोहम्मद अली-शौकत अली की जय’ नारे के स्थान पर ‘हिन्दू-मुस्लिम की जय’ लगे ।उसी लेख में गांधी बताते हैं कि उसी दौरे ( मद्रास दौरे में बेजवाड़ा में ) भाई शौकत अली ने नारों की बाबत सकारात्मक तरीके से एक नियम पेश किया । ‘ उन्होंने गौर किया यदि हिन्दू ‘ वन्दे मातरम’ का नारा लगाते हैं और मुस्लिम ‘अल्लाह-ओ-अक़बर’ तो यह कानों में चुभता है और लगता है कि एक मन से नारा नहीं लगाया गया ।इसलिए तीन नारों को मान्यता दी जानी चाहिए जिन्हें हिन्दू-मुस्लिम मिलकर सहर्ष लगायें । (१) ‘अल्लाह-ओ-अक़बर’ अर्थात ईश्वर ही श्रेष्ट है , (२) वन्दे मातरम ( मातृभूमि की जय ) अथवा भारतमाता की जय तथा (३) हिन्दू-मुसलमान की जय जिसके बिना भारत की जय संभव नहीं है तथा ईश्वर की श्रेष्टता का सच्चा प्रदर्शन नहीं हो सकता। यह सभी नारे अर्थपूर्ण हैं । पहला अपनी क्षुद्रता कबूल करने तथा इस प्रकार विनय प्रकट करने की प्रार्थना है । हिन्दू इन अरबी अल्फ़ाज़ से संकोच नहीं करेंगे जिनके माएने न सिर्फ पूर्णरूपेण अनाक्रामक हैं अपितु विनम्र बनाने वाला है । ईश्वर किसी ज़बान विशेष की तरफ़दारी नहीं नहीं करता । ‘वन्दे मातरम’ अपने उत्कृष्ट इतिहास के अलावा एकमेव राष्ट्रीय आकांक्षा का प्रतीक है – भारत को सर्वोच्च उत्थान मिले – इसका । मैं (गांधी) ‘भारतमाता की जय’ की तुलना में ‘वन्दे मातरम’ पसंद करता हूं चूँकि यह बंगाल की बौद्धिक और भावनात्मक श्रेष्टता का प्रतीक है । हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना भारत कुछ नहीं बन सकता इसलिए हम इसे कभी न भूलें ।
‘ इन नारों को लगाने में असंगति नहीं प्रकट होनी चाहिए । इनमें से कोई नारा किसीनी लगाया तो अन्य लोगों को उसे पूरा करना चाहिए न कि अपने प्संदीदा को चीख कर लगाने के बाद अन्य को दबाने की कोशिश । जिन्हें इच्छा नहीं है वे न लगायें लेकिन नारा लग जाने के बाद मनमानापन तहज़ीब का उल्लंघन माना जाना चाहिए ।
विभाजन के बाद के कौमी हुल्लड़ों के दौर में गांधी प्रार्थना सभाओं से वन्दे मातरम के शुरु होते ही बहिष्कार से ज्यादा योजनाबद्ध तरीके से कुरान की आयतों के पाठ पूर्व होने वाला बहिष्कार था । इस वजह से गांधी जी ने प्रार्थना पूर्व भाग लेने वालों से कुरान-पाक के पाठ पर आपत्ति के बारे में पूछना शुरु किया ।
वन्दे मातरम के प्रथम दो छन्द राष्ट्रगान के रूप में मान्य किया गया है । आगे के अनुच्छेद में ‘ माँ’ ‘तुमी दुर्गा’ हो जाती हैं जिन पर आपत्ति की जाती है ।
[ अगली किश्तों में अफ़गान अमीर का साथ , जिन्ना बनाम अली बन्धु ]
अफ़वाहें फैलाने वाले समाज का एक नाम है.. ये हैं RSS बोले तो Rumour Spreading Society
‘निर्बल के बल राम’ वाली पदावली याद आ रही है। कुहासा छंटे और व्यग्रता कम हो।
अगली कडी की प्रतीक्षा है। अत्यधिक अधीरता से।
[…] यह सिर्फ़ अफवाह ही हो सकती है कि… […]
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